Maharaj Real Story: इस पत्रकार के खिलाफ हुआ था मशहूर मानहानि मुकदमा, अंग्रेज जज ने सुनाए थे एतिहासिक फैसले

Maharaj Real Story: इस पत्रकार के खिलाफ हुआ था मशहूर मानहानि मुकदमा, अंग्रेज जज ने सुनाए थे एतिहासिक फैसले

होना तो यह था कि आमिर खान के बेटे जुनैद खान की डेब्यू फिल्म ‘महाराज’ आज दर्शकों तक पहुंचती। नेटफ्लिक्स पर आज 14 जून रिलीज की तारीख तय थी। लेकिन, ऐसा हो नहीं सका है। इसकी रिलीज टल गई है। गुजरात हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगाई है। मामले में अगली सुनवाई 18 जून को है। न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक इस फिल्म को लेकर हिंदू धर्म के वैष्णव संप्रदाय पुष्टिमार्ग के अनुयायियों ने दावा किया था कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत होंगी। जैसे ही रिलीज टलने की खबर सामने आई है लोगों का सवाल है कि आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है? तो चलिए जानते हैं कि यह फिल्म किस पर आधारित है और क्यों विवाद हो रहा है…फिल्म ‘महाराज’ गुजरात के लेखक, कवि और पत्रकार और समाजसुधारक करसनदास मूलजी पर आधारित है। जुनैद खान इस फिल्म में करसनदास की भूमिका में हैं। 1832 में गुजरात के भावनगर में जन्मे करसनदास ने इलाके के सबसे बड़े मठ के महाराज को उनकी करतूतों के चलते अदालत में घसीटा था। करसनदास का पूरा जीवन महज 39 वर्ष का रहा, मगर इस दौरान उन्होंने बॉम्बे (अब मुंबई) और गुजरात में समाज के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए। कई पत्रिकाएं शुरू कीं। उन पर मानहानि का मामला दर्ज हुआ। महाराज मानहानि मामले में करसनदास ने बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट में सफलतापूर्वक अपना बचाव किया। 1862 के उस केस को  ‘महाराज लिबेल केस’ के नाम से जाना जाता है।करसनदास स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति थे। वे एलफिंस्टन कॉलेज के छात्र समाज द्वारा चलाई जाने वाली गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली (ज्ञान के प्रसार के लिए गुजराती सोसायटी) के सक्रिय सदस्य थे। 1851 में करसनदास ने पहली बार पत्रकार के रूप में काम किया। उन्होंने उसी वर्ष एंग्लो-गुजराती समाचार पत्र रास्ट गोफ्तार में योगदान देना शुरू किया। इस न्यूज पेपर को दादाभाई नौरोजी ने शुरू किया था। उस वर्ष करसनदास को सामने पहली बड़ी चुनौती तब आई, जब उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करते हुए एक साहित्यिक प्रतियोगिता के लिए एक निबंध लिखा। खबर करसनदास की बुजुर्ग चाची तक पहुंची। उन्हीं चाची ने करसन की मां की मृत्यु के बाद उनकी देखभाल की थी। खबर पढ़ने के बाद उन्होंने करसन को तुरंत घर से निकाल दिया। उस समय, करसनदास शादीशुदा थे। युवा पत्रकार ने तब क्लेयर (जूनियर) छात्रवृत्ति से अपना खर्च चलाना शुरू किया।करसनदास का समाज और परिवार में खूब विरोध हुआ। लेकिन, वे रास्ट गोफ्तार में योगदान देते रहे। जल्द ही उन्हें यह अहसास हुआ कि इतना करना पर्याप्त नहीं है। वर्ष 1855 में उन्होंने आपनी पत्रिका, सत्यप्रकाश शुरू की। इसमें उन्होंने पुरानी परंपराओं और सामाजिक समस्याओं पर खुलकर लिखा। खुद एक वैष्णव, करसनदास ने वैष्णव पुजारियों के ‘कुकर्मों’ पर लिखना शुरू किया, जिसमें महिला भक्तों का शोषण भी शामिल था। 1858 में जब दयाल मोतीराम द्वारा शुरू किए गए एक मामले में बंबई उच्च न्यायालय ने वैष्णव पुजारी जीवनलालजी महाराज को गवाह के रूप में बुलाया, तो उन्होंने उपस्थित होने से इनकार कर दिया। इसके अलावा उन्होंने वैष्णव पुजारियों को अदालत में पेश होने से हमेशा के लिए छूट देने के लिए लंदन से एक आदेश मांगा। उन्होंने वैष्णव अनुयायियों को तीन शर्तों पर सहमत होने के लिए मजबूर किया, शर्तें थीं- 1. कोई भी वैष्णव महाराज के खिलाफ नहीं लिख सकता था, 2. कोई भी वैष्णव उन्हें अदालत में नहीं ले जा सकता था और तीसरी अगर कोई उन पर मुकदमा करता है, तो अनुयायी मामले का खर्च वहन करेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि महाराज को अदालत में पेश न होना पड़े। करसनदास ने ‘सत्यप्रकाश’ में कई लेख लिखकर इस जबरदस्ती के समझौते की खूब आलोचना की और इसे गुलामी का समझौता करार दिया। वर्ष 1861 में ‘सत्यप्रकाश’ में एक लेख छपा, करसनदास ने ही लिखा था। इसका शीर्षक था-‘हिंदुओं का असली धर्म और मौजूदा पाखंडी नजरिया’। इसमें उन्होंने पुष्टिमार्गी कहे जाने वाले वल्लभ संप्रदाय पर सवाल उठाया था। अपने लेख में करसनदान ने यह आरोप लगाया था कि वल्लभ संप्रदाय के तत्कालीन संत जदुनाथजी बृजरतनजी महाराज अपनी महिला श्रद्धालुओं का यौन शोषण करते हैं। एक और गंभीर आरोप यह था कि इस संप्रदाय में कहा जाता था कि जो भी पुरुष श्रद्धालु अपनी पत्नी को महाराज के साथ सोने के लिए राजी होगा, उसी से उसकी श्रद्धा प्रदर्शित होगी। यह मामला इतना उछला कि लंदन में बैठी ब्रिटिश सरकार तक हिल गई थी।रिपोर्ट्स के मुताबिक यह मानहानि मुकदमा 25 जनवरी 1862 को शुरू हुआ और अदालत में बड़ी भीड़ जुटी। भारी दबाव के बावजूद, करसनदास अडिग रहे। वादी की ओर से 31 गवाहों और प्रतिवादियों की ओर से 33 गवाहों की जांच की गई। जदुनाथ महाराज को अदालत में लाया गया। उनके मानहानि के आरोप खारिज किए गए। 22 अप्रैल 1862 को दिए गए अपने फैसले में, न्यायाधीश अर्नोल्ड ने कहा, “यह धर्मशास्त्र का सवाल नहीं है, जो हमारे सामने है! यह नैतिकता का सवाल है। जो नैतिक रूप से गलत है वह धार्मिक रूप से सही नहीं हो सकता’। उन्होंने बुरी प्रथाओं की निंदा करने और उन्हें उजागर करने के लिए करसनदास और उनके सहयोगियों की सराहना की। अदालत ने करसनदास को 11,500 रुपये का मुआवजा दिया। मुकदमे के दौरान करसन को करीब 14,000 रुपये का खर्च उठाना पड़ा था। माना जा रहा है कि जुनैद फिल्म 1862 के इसी चर्चित ‘महाराज लिबेल केस’ से प्रेरित है। इस फिल्म पर गुजरात के वैष्णव संप्रदाय पुष्टिमार्ग के अनुयायियों ने आपत्ति जताई है। बता दें कि जुनैद की फिल्म का निर्माण यशराज फिल्म्स ने किया है।

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