महिलाओं के दुख दर्द की कहानियां साझा करना और वह भी एक महिला निर्देशक के नजरिये से, सुनने में ही बहुत अच्छा लगता है। बीते साल मामी फिल्म फेस्टिवल में ताहिरा कश्यप की इस फिल्म की खूब चर्चाएं भी रहीं। इस फिल्म फेस्टिवल की पूरी कमान भी महिलाओं के हाथों में ही रहती है और फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ एक तरह से इस फेस्टिवल के नाम को ही आगे बढ़ाती फिल्म रही। ताहिरा कश्यप का जीवन को देखने का नजरिया अपना है। वह चीजों को समझती हैं, उनकी गहराई में जाने की कोशिश करती हैं, और यही बात उनको दूसरी महिला निर्देशकों से थोड़ा अलग भी बना सकती है लेकिन अभी वहां पहुंचने में उनको समय लगने वाला है। समीर नायर और दीपक सहगल जैसे दिग्गजों के नाम जुड़े होने के बाद भी अगर कोई फिल्म सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पा रही है, तो जाहिर है कि इसमें दर्शकों को खींचकर लाने की शक्ति उतनी नहीं है जितने की जरूरत है।फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ ओटीटी प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई है। इस ओटीटी का चलन इतना निराला रहा है कि पूछो मत। सिफारिशी फिल्मों के ओटीटी अधिकार खरीदकर उन्हें पैसे देकर अपना ओटीटी देख रहे ग्राहकों के गले उतारने में इसे महारत हासिल है। इसके अधिकारी भी इसी चक्कर में आते जाते रहते हैं, लेकिन निर्माताओं की भलाई करने में प्राइम वीडियो जैसा उदाहरण दूसरा बिरले ही मिल सकता है। तनुज गर्ग, अतुल कस्बेकर, समीर नायर, दीपक सहगल की बनाई फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ बिना किसी प्रचार प्रसार के प्राइम वीडियो पर नमूदार हुई है। एक फिल्म समीक्षक के नजरिये से ये एक बढ़िया फिल्म है। लेकिन, एक दर्शक के नजरे से इसमें मनोरंजन के वे तत्व मौजूद नहीं है जो एक बढ़िया से सप्ताहांत पर दर्शकों का चाय की चुस्कियों के साथ बढ़िया मूड भी और बढ़िया कर दे।कहानी महिलाओं के नजरिये से जिंदगी के कुछ नए पहलू देखने की है। यहां मासिक धर्म शुरू न हो पाने की समस्या है। एक मां के अपने ही गिरेबान में झांकने और फिर खुद को ही जज करने की समस्या है। पति की उपेक्षा से परेशान रहने की समस्या है। और, खुद को कुछ समझ कर एक अलग ही अकड़ फूं के रास्ते पर निकल पड़ने की समस्या भी है। ताहिरा कश्यप शॉर्ट फिल्में बना चुकी हैं। फीचर फिल्म के निर्देशक के तौर पर उन्होंने अपने लिए एक सही कहानी भी चुनी है लेकिन जमाना अमोल पालेकर, बासु चटर्जी जैसी फिल्मों से कहीं आगे निकल आया है। ताहिरा को मौका मिले तो इसी हफ्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई फिल्म ‘कूकी’ देखनी चाहिए। ये फिल्म भी बात महिला सशक्तिकरण की ही करती है लेकिन इसकी कहानी एकांकी है। फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ की समस्या ये भी है कि ये बहुत सारी बातें एक ही फिल्म में दर्शकों को समझा देना चाहती है।ताहिरा कश्यप ने हालांकि पूरी कोशिश की है कि फिल्म की अंतर्धारा को दर्शकों के अवचेतन मस्तिष्क तक ले जाने के लिए वह भाषण करती नजर न आएं और बहुत ही सामान्य तरीके से सहज हास्य और हल्के फुल्के दृश्य रचते हुए वह अपनी फिल्म को उपसंहार तक ले भी आती है लेकिन डोना भट का पार्श्वसंगीत, अंतरा लाहिड़ी का संपादन और दलजीत व राकेश की सिनेमैटोग्राफी भी ताहिरा की फिल्म को उस स्तर तक ले जाने में सफल नहीं होती है जिसकी उम्मीद एक महिला फिल्मकार की महिला विषयक फिल्मों से होती है। ताहिरा के लिए देखा जाए तो बड़े परदे पर निर्देशन की शुरुआत के लिए आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ उनके लिए सही फिल्म होती।फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ को देखने के बाद समझ ये भी आता है कि एक महिला निर्देशक की फिल्म में अपने काम का सौ फीसदी इसके महिला कलाकार दे ही देते होंगे, ये भी तय नहीं है। इस फिल्म में सैयामी खेर का अभियान वैसा ही है। पता नहीं ‘घूमर’ के दिनों में ही ये फिल्म भी उन्होंने कर ली होगी या कुछ और, लेकिन पूरी फिल्म में जो कलाकार कहानी से सबसे ज्यादा कटा कटा नजर आता है, वह सैयामी खेर ही हैं। साक्षी तंवर के लिए अब पाने और खोने को शायद ही कुछ बचा है। वह चाहें तो अब भी अपनी अभिनय का असल निचोड़ दर्शकों तक पहुंचाकर उन्हें चौंका सकती हैं, लेकिन वह जहां हैं जितने में हैं, उतने में ही खुश नजर आने लगी हैं। फिल्म का सरप्राइज पैकेज हैं दिव्या दत्ता। उन्होंने फिर एक बार अपने अभिनय से सबको हिलाया भी है और भिगोया भी है। काश! फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ के बारे में भी ऐसा ही लिखा जा सकता।